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द टावर

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अपराईट भविष्य कथन का महत्व



व्यवधान, परित्याग, दोस्ती का अंत, दिवालिएपन, पतन, अप्रत्याशित घटनाएं, अचानक परिवर्तन, उथल-पुथल, अराजकता, रहस्योद्घाटन, जागृति

यह कार्ड एक 'नो' नकारात्मक कार्ड है। व्यवधान, परित्याग, दोस्ती का अंत, दिवालिएपन, पतन, अप्रत्याशित घटनाएं, अचानक परिवर्तन, उथल-पुथल, अराजकता, रहस्योद्घाटन, जागृति सब कुछ होगा।

रिवर्स भविष्य कथन



फँसाना, कारावास, पुराने तरीके, देहाती, व्यक्तिगत परिवर्तन, परिवर्तन का डर, आपदा टालना

साम दाम दंड भेद सब कुछ आपके विरुद्ध अपनाया जाएगा। इन सब चीजों में आपको फँसाना, हो सकता है। आपको कारावास हो ऐसे पुराने तरीके, देहाती तरीके अपनाए जाएंगे। लेकिन डरिए नहीं यह मंथन की क्रिया है। आपके व्यक्तिगत परिवर्तन का समय आ चुका है। परिवर्तन का डर आपको लग सकता है किंतु परिवर्तन निश्चित होगा। किसी भी प्रकार की आपदा टालना आपके लिए आसान है। थोडा धैर्य रखिए। एक बार इस मंथन की प्रक्रिया से आप गुजरोगे फिर आपका सुनहरा समय आएगा। आपके जीवन का यह 'बॉटम लाईन' होगी। इसके आगे फिरसे उपर उठने का काम होगा। 'फिनिक्स' पंछी के जैसा आप राख से उठोगे और आसमान में फिरसे छा जाओगे। अपने आप पर यकीन रखिए।

युरोपिय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु



'द टावर' एक ऐसा कार्ड है जिसे कलाकार ने फिर से गलत समझा।

आइए हम कार्ड की छवियों का अध्ययन करें। कार्ड के बीच में एक टावर है। आसमान से बिजली चमक रही है जिससे टावर में आग लग गई है।

एक महिला को टॉवर के बाईं ओर फेंक दिया गया है और एक पुरुष को टॉवर के दाईं ओर से फेंक दिया गया है। उनके चेहरे पर भयानक डर हैं। महिला के सिर पर ताज है। टावर का बड़ा क्राउन-कवर खुला है और किसी भी समय गिर सकता है।

कुछ छोटे सुनहरे पत्ते पृष्ठभूमि में नीचे गिर रहे हैं।

प्राचीन भारतीय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु


यह एक विशाल अवधारणा है, यह जीवन से भी बड़ी है। यह मंथन है।

'द टावर' असल में मेरु पर्वत है। सागर का मंथन करने के लिए उस पर्वत का उपयोग मंथनी के रूप में किया गया था। वासुकी सांप को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। फिर 14 शुभ रत्न निकले। बाईं ओर लक्ष्मी है और दाईं ओर धन्वंतरि है। कलाकार ने, गलती से इसका वर्णन ऐसे किया जैसे कोई टावर से गिर रहा हो।

गिरते हुए पत्ते ब्रह्मांड को चलाने के लिए महासागर से निकलने वाली शेष शुभ वस्तुएं हैं। देवताओं और राक्षसों के बीच मंथन हुआ है।

(कहानी का विवरण जरूर पढ़ें।)

राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।

"भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकालने की बात बलि को बताइ। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। वासुकी के नेत्र से नेतङ(राजपुरोहित) का उद्भव हुआ। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।

समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं।

दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।





प्राचीन भारतीय टैरो कार्ड

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