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टू ऑफ कप्स

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अपराईट भविष्य कथन का महत्व



रोमांस, दोस्ती, सहयोग, एकीकृत प्रेम, साझेदारी, आपसी आकर्षण

ये कार्ड हैं राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम कथा के बारे में। जो प्रतीक है रोमांस, दोस्ती, सहयोग, एकीकृत प्रेम का। साझेदारी, आपसी आकर्षण का उत्तम उदाहरण यह कार्ड है।

रिवर्स भविष्य कथन



हिंसक जुनून, गलतफहमी, आत्म-प्रेम, ब्रेक-अप, वैमनस्य, अविश्वास।

आपके उपर हिंसक जुनून तब छा जाता है जब लोग आपको ठीक तरह से समझ नहीं पाते। राजा दुष्यंत और शकुंतला की तरह आप भी गलतफहमी के शिकार बन सकते हो। आत्म-प्रेम के कारण आप परेशान जरूर होते हो लेकिन कई बार यही आपकी ताकत बनता है।आपका ब्रेक-अप होने के सम्पूर्ण चांसेस है। ब्रेक-अप मतलब तणाव्पूर्ण स्थिती केवल दो प्रेमियों में ही आती है ऐसा नहीं यह स्थिती किसी भी रिश्ते में आ सकती है। आपका किसी से ना वैमनस्य है ना कोई दुश्मनी है।आपने हर एक व्यक्ति के उपर विश्वास दिखाया किंतु आप पर लोगों ने हमेशा अविश्वास दिखाया ऐसा क्यों, कुछ पता नहीं चल रहा है।

युरोपिय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु



यह जोड़ा राजकुमार और राजकुमारी हो सकता है, क्योंकि उन्होंने अपोलो 'जैतून के पत्ते' का ताज पहना है। tarot.ideazunlimited.net.apolo crown राजकुमारी अपने सफेद शादी के गाउन में हैं। राजकुमार ने पीले रंग की पोशाक पहनी हुई है जिस पर काले फूल हैं। वे पहाड़ी पृष्ठभूमि पर मिल रहे हैं। दोनों किरदार कप टोअस्टिंग कर रहे हैं। राजकुमार अपने दाहिने हाथ से राजकुमारों को छूने की कोशिश कर रही है। वह अपने बाएं हाथ से कप को पकड़े हुए है। राजकुमारी दोनों हाथों से प्याला पकड़े हुए है।

कप के बीच में एक रहस्यमय चिन्ह देखा जा सकता है। इसमें दो सर्प हैं और एक सीधा डंडा फैले हुए पंखों वाले शेर के चेहरे को पकड़े हुए है। tarot.ideazunlimited.net.kundalini
इस रहस्यमय चिन्ह को कैडियस के रूप में लिया जाता है, जो कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।

(कुंडलिनी शक्ति चिन्ह के बारे में ग्रंथ के दूसरे भाग में समझाया गया है।)

प्राचीन भारतीय टैरो कार्ड अभ्यास वस्तु


राजा और एक 'अप्सरा की बेटी' सूरज के नीचे आखिरी बार मिल रहे हैं। राजा लडकी को दो कलश दे रहा है।

कलश के बीच में एक रहस्यमय चिन्ह भी दिखाई दे रहा है, जो कुंडलिनी शक्ति, को जगाने का प्रतीक है।

(कृपया ग्रंथ के दूसरे भाग में कुंडलिनी शक्ति के बारे में स्पष्टीकरण पढिए।)

ये हैं राजा दुष्यंत और शकुंतला। दोनों एक अमर प्रेम कहानी के पात्र हैं। राजा, शकुंतला को जंगल में मिला था। वे एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं। राजा उसे प्यार की निशानी के रूप में एक शाही अंगूठी प्रदान करता है। कुछ दिनों के बाद वो महल जाने का फैसला करती है। जब नदी पार करते हुए वह पानी से खेलती है तब एक मछली उसकी अंगूठी निगल जाती है। उस घटना से अनजान शकुंतला राजा से मिलने की कोशिश करती है। राजा दुष्यंत उसे पहचान नहीं पाता है। वह वापस जंगल में जाती है और एक बच्चे को जन्म देती है।

कुछ महीनों बाद एक मछुआरा मछली को पकड़ता है। मछुआरे को मछली के अंदर शाही अंगूठी मिलती है।

मछुआरा राजा से अधिक सोने की लालसा में महल जाता है। अंगूठी देखकर राजा को अपनी पत्नि याद आती है। फिर वह शकुंतला को खोज निकालता है, उसे उसके बच्चे के साथ स्वीकार करता है। नन्हा बालक राजा भरत के नाम से आगे प्रसिद्ध हुआ।

उन्हीं के नाम से भारत देश का नाम भारत पड़ा।

(अधिक विस्तृत कहानी ग्रन्थ के दूसरे भाग में।)

एक राजा को वन पुत्री से प्यार हो गया था। दोनों ने शादी की। लेकिन वक्त ने सबकुछ भुला दिया। तब एक मछली ने दोनों को फिर मिलाया। हम बात कर रहे हैं पराक्रमी राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम कहानी की। ये कहानी शुरू हुई थी उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जनपद स्थित कण्वाश्रम में।

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुंच गये। पुकार लगाने पर एक सुंदर कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।”

उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?”

उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये।

शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।

दोनों ने विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा।

महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहां से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।

लेकिन एक घटना ने बदल दिए दोनों के रास्ते

एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।”

दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”

महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया।

लेकिन मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई|

महाराज दुष्यंत के पास पहुंच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर अर्नगत आरोप लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।

जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुंढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला। कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये।

आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर शेर के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।”

यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा।

सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।





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